Neeraj jat's tour to Nagri Sihawa
22 Dec 2016Written by Neeraj jat
1 मार्च 2013 सुबह आराम से सोकर उठे। मैं पहले भी बता चुका हूं कि यह क्षेत्र घोर आध्यात्मिक क्षेत्र है। कई पौराणिक ऋषियों के आश्रम यहां हैं। ये आश्रम एक ही स्थान पर न होकर दूर-दूर हैं लेकिन कुल मिलाकर इसे सिहावा क्षेत्र ही कहा जाता है। गुरूजी शिवेश्वरानन्द जी महाराज भी हमारे साथ चलने को तैयार हो गये। गुरूजी बस्तर क्षेत्र के अच्छे ज्ञाता हैं। इनके साथ होना मेरे लिये बेहद शुभ था। मैं, डब्बू, तम्बोली, गुरूजी तथा एक और, कुल मिलाकर पांच जने कार में बैठे और चल पडे। कुछ दूर तक वही रास्ता था, जिससे कल आये थे। कल यहां आते समय अन्धेरा हो गया था, लेकिन मैं रास्ते को अच्छी तरह पहचान सकता था। कुछ दूर चलकर एक चौराहा आया, जहां से सीधे रास्ता जामगांव, बायें कांकेर और दाहिने नगरी जा रहा था। हम कल जामगांव से आये थे और अब दाहिने मुडकर नगरी की तरफ चल पडे। यहां से पांच छह किलोमीटर आगे गुरूजी ने एक और रास्ते का इशारा करके बताया कि यह रास्ता भी आश्रम जाता है। एक जगह सडक के ऊपर स्वागत द्वार लगा था- धमतरी जिले में आपका स्वागत है। इसी के दूसरी तरफ लिखा था- कांकेर जिले में आपका स्वागत है। यानी आश्रम कांकेर जिले में स्थित है। नगरी पहुंचे। यहां कुछ देर बैठकर चाय पी। कल कार एक गड्ढे में फंस गई थी, जिसे निकालते समय मेरी चप्पल टूट गई। अब नंगे पैर रहना पड रहा था लेकिन गुरूजी भी नंगे पैर ही थे, इसलिये ज्यादा अखरा नहीं। फरसिया गांव के पास महामाई का मन्दिर है। यहीं एक कुण्ड है। कहा जाता है कि यहीं कुण्ड महानदी का उद्गम है। मन्दिर प्रांगण में ही एक रजवाहा भी बह रहा है। रजवाहे में बहते पानी को देखते ही मैंने अन्दाजा लगा लिया कि यह रजवाहा कहीं दूर से आ रहा है। बाद में पता चला कि सोण्ढूर बांध से यह रजवाहा आ रहा है। कुण्ड चारों तरफ से पक्का बना है। एक कोने में एक नाली निकलकर खेतों में बहती चली गई है। गुरूजी ने बताया कि यही महानदी है और यहीं से यह अपनी यात्रा शुरू कर देती है। यह इलाका एक मैदानी इलाका है लेकिन पूर्वी घाट के पहाड यहां से ज्यादा दूर नहीं। अगर आसपास ऊंची जमीन हो तो निचले इलाकों में धरती से स्वतः पानी निकलना कोई बडी बात नहीं है। अब यहां भी पानी निकलता है या नहीं निकलता, लेकिन पहले जरूर निकलता होगा। अब इस कुण्ड को रजवाहे से खूब पानी मिल रहा है। कुण्ड का पानी भी साफ है और नाली की शक्ल में बहती महानदी में भी अच्छा प्रवाह है। अगर यहां रजवाहा न होता तो कुण्ड का पानी कभी का सड जाता क्योंकि मैदानी इलाकों में भूगर्भ से ज्यादा मात्रा में पानी नहीं निकला करता। यहां महामाई के मन्दिर के पुजारी और साधु गुरूजी को अच्छी तरह जानते हैं। हमारा भी बढिया सत्कार हुआ। पुनः कार लेकर चले। अबकी बार जंगल में घुस गये और भृगु ऋषि आश्रम जाने लगे। यह आश्रम एक अभयारण्य में स्थित है। असल में उदन्ती और सीतानदी अभयारण्य दोनों जुडवां अभयारण्य हैं। पता नहीं कि महामाई मन्दिर से निकलकर हम उदन्ती में घुसे या सीतानदी में। भृगु आश्रम जाने का रास्ता बिल्कुल कच्चा था लेकिन कार कूदती-फांदती निकल गई। कुछ दूर नंगे पैर पैदल भी चलना पडा। यहां भी बिल्कुल सन्नाटे में और वीराने में एक छोटी सी कुटिया है। एक साधु रहते हैं। बताते हैं कि यहां एक के बाद एक सात छोटे छोटे तालाब हैं। दो तो मुझे दिखे, बाकी घना जंगल होने के कारण नहीं दिखे। इन दोनों में पानी नहीं था। सर्दियों के बाद हिमालय तक सूख जाता है, भला छत्तीसगढ की क्या औकात। डब्बू ने यहां ध्यान लगाया। ध्यान से उठते ही गुरूजी से पूछने लगा कि गुरूजी, इस जगह पर मामला क्या है? गुरूजी बोले कि यह स्थान शापित है। पहले ऋषि मुनि अपने अपने तरीके से तपस्या करते थे और ध्यान लगाते थे। एक की पद्धति दूसरे से भिन्न हो गई तो दोनों में लडाई हो गई कि मैं श्रेष्ठ और मैं श्रेष्ठ। बस, इसी बात पर एक ने दूसरे के स्थान को श्राप दे दिया। तभी से यह शापित है। मुझे तो खैर इन बातों का तजर्बा नहीं है, लेकिन विश्वास न करने की कोई वजह भी नहीं। गुरूजी ने बताया कि वे इस स्थान का श्राप काटने के लिये प्रयत्नरत हैं। जब तक श्राप नहीं कटेगा, तब तक इस स्थान को विकसित नहीं किया जा सकता। मेरी इच्छा इस यात्रा में एक राष्ट्रीय उद्यान या अभयारण्य में घूमने की थी। मैं हालांकि घूम तो लिया लेकिन इच्छा पूरी नहीं हुई। एक तो नंगे पैर, दूसरे बडी जल्दबाजी में थे हम। करीब आधा घण्टा यहां भृगु आश्रम पर रुके और तुरन्त ही वापस लौट आये। पुनः महामाई के मन्दिर पर पहुंच गये। यहां खाना पीना हुआ। छत्तीसगढ को भारत का धान का कटोरा कहा जाता है। धान का कटोरा है भी। इस मौसम में भी यानी सर्दी उतरने के बाद भी यहां धान के खेत देखे जा सकते हैं। छत्तीसगढ आकर चावल न खाये तो आपकी भी बेकद्री है और छत्तीसगढ की भी। वापस आ रहे थे तो कर्णेश्वर धाम रास्ते में पडा। यहां दो दिनों से मेला लगा था। आज उजडने लगा। इसे 13वीं शताब्दी में कल्चुरी राजाओं ने बनवाया। मन्दिर में पाली में लिखा एक शिलालेख भी है। गुरूजी की यहां के चप्पे चप्पे में अच्छी घुसपैठ है, इसलिये उन्होंने ही हमारी तरफ से कुछ पूजा-पाठ की। हमें मुंह मीठा करने को थोडा सा मिष्ठान्न भी मिला। जब मेला क्षेत्र से गुजर रहे थे तो एक जगह चप्पल जूतों की दुकान देखकर डब्बू ने कहा कि जाटराम, चप्पल ले ले। मैंने मना कर दिया। कुछ ही आगे बढे तो मोची बैठा दिख गया। दस रुपये लगाकर टूटी चप्पल ऐसी ठीक हुई कि आज तक बढिया काम कर रही है। कम से कम ढाई सौ रुपये बच गये। शृंगी ऋषि आश्रम- यह सिहावा का एक प्रमुख आश्रम है। सप्तऋषियों में से एक है। शृंगी ऋषि ही थे जिनके आशीर्वाद से राजा दशरथ को पुत्र प्राप्ति हुई। यहां एक बंजर सी पहाडी है जिस पर बडे बडे पत्थर और कुछ पौधे दिखाई देते हैं। नीचे बराबर में ही महानदी बहती है। अपने उद्गम से मुकाबले यहां यह कुछ बडी हो गई है। अब यह नाली में नहीं बहती बल्कि अब इसका अपना क्षेत्र है। गुरूजी तो नीचे आश्रम में ही रह गये, हम तीनों प्राणी ऊपर की ओर चले। रास्ता कुछेक जगह खतरनाक भी है लेकिन अच्छी आवाजाही लगी रहती है। पक्की सीढियां भी बनी हैं लेकिन वे आश्रम से कुछ दूर थीं, इसलिये हम सीधे रास्ते से गये। ऊपर पहाडी पर एक छोटा सा गड्ढा है जिसकी तली में दो घूंट पानी दिखाई दे रहा था। कहते हैं कि महानदी का एक उद्गम यह भी है। इसका सीधा सम्बन्ध नीचे बह रही महानदी से है। अगर इस कुण्ड में फूल आदि डाले जायें तो वे महानदी में पहुंच जाते हैं। इस शुष्क पथरीली पहाडी के शीर्ष पर पानी का कुण्ड होना अज्ञानियों के लिये चमत्कार ही है। मैं भी चूंकि इस मामले में अज्ञानी हूं, इसलिये मेरे लिये भी यह चमत्कार है। कोई भूविज्ञानी ही बता सकता है कि यहां कुण्ड में पानी क्यों है। वो भी ऐसे कुण्ड में जो सीधा नीचे महानदी से जुडा है। पहाडी चूंकि पथरीली है इसलिये पत्थरों और चट्टानों की दरारों के बीच से नदी तक कोई छोटी सी सुरंग बन गई होगी, यह तो मुमकिन है लेकिन पानी का क्या करें? एक ऐसी ही पहाडी पर उत्तराखण्ड के चम्पावत जिले में पूर्णागिरी है। वहां भी पहाडी के शीर्ष में एक छेद है जिसमें प्रसाद आदि चढाएं तो वो नीचे बह रही काली नदी में जा पहुंचता है। लेकिन वहां छेद में पानी नहीं है। बताते हैं कि यहां पानी का तल घटता बढता रहता है। इस समय यह न्यूनतम था। यह भी प्रसिद्ध है कि यहां पहाडी पर खोखले पत्थर हैं जो बजते हैं। हम एडी मार-मारकर पत्थर ढूंढते रहे लेकिन एडियां दुखने लगीं, पत्थर ना मिलने थे, ना मिले। नीचे आये तो चाय हमारी प्रतीक्षा कर रही थी। साधुओं के आश्रम में कल से हमारा दाना-पानी हो रहा है, बडी शान की बात है। साधु ही वे लोग हैं जो सबसे बडे घुमक्कड होते हैं। एक साधु बिना पैसे के पूरे देश में घूम लेगा, उसे कहीं भी न बोलने चालने की असुविधा होगी, न खाने-पीने की और न उठने बैठने की। यहां से निकले तो सीधे कर्क आश्रम ही रुके। रास्ते में गुरूजी के कुछ शिष्य मिले जो आश्रम में काफी देर तक उनकी प्रतीक्षा करके निराश होकर लौट रहे थे। वे बडे लोग थे और उनकी बात का मुख्य मुद्दा यहां कुम्भ आयोजन ही रहा। मैं यहां कुम्भ आयोजन के विरुद्ध हूं। इनका तर्क है कि इससे छत्तीसगढ में पर्यटन बढेगा और स्थानीय लोगों को रोजगार मिलेगा। वैसे कुम्भ तो राजिम में भी हो रहा है। वो भी तो छत्तीसगढ में ही है। उसके विरुद्ध यह साजिश क्यों? मुझे गन्ध मिल रही है कि इसका छत्तीसगढ से कोई लेना-देना नहीं है। कभी राजिम में कुम्भ की शुरूआत हुई थी, तो पुराने ग्रंथों के आधार पर ही हुई होगी। सारा मामला राजिम और सिहावा के मठाधीशों के वर्चस्व का लग रहा है।
महानदी की यात्रा शुरू यही वो कुण्ड है जहां से महानदी का उद्गम है। श्री शिवेश्वरानन्द जी महाराज महानदी का नक्शा कुण्ड और महामाई का मन्दिर सोण्ढूर बांध से आता रजवाहा कर्णेश्वर ऊपर पहाडी पर जलयुक्त दरार श्रृंगी आश्रम के पास से बहती महानदी कर्क ऋषि आश्रम **